
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
आपको देखने में यह संस्कृत की सामान्य पंक्तियां लगेंगी लेकिन इन दो पंक्तियों में सारा ब्रह्माण्ड समाई है। इन दो पंक्तियों का अर्थ है गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरु यानी शिक्षक की महिमा अपार है। उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। गुरु को भगवान से भी बढ़कर दर्जा दिया गया है।शिक्षक का हम सब के भविष्य में महत्वपूर्ण योगदान होता है। एक शिक्षक के बिना हर व्यक्ति का जीवन अधूरा रहता है।
आज हम ऐसे ही गुरु की बात करने वाले हैं जिनके जन्मदिवस पांच सितंबर को पूरा भारत शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है वो है भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान शिक्षक के साथ साथ स्वतंत्र भारत के पहले उप-राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भी थे। उन्हें 1954 में ‘भारत रत्न’ की उपाधि से भी नवाजा गया था।
आखिर क्यों मनाया जाता है शिक्षक दिवस:
पांच सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने के पीछे एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि एक बार सर्वपल्ली राधाकृष्णन से उनके छात्रों ने उनके जन्मदिन का आयोजन करने के लिए पूछा। तब राधाकृष्णन ने उनसे कहा कि आप मेरा जन्मदिन मनाना चाहते हैं यह अच्छी बात है, लेकिन अगर आप इस खास दिन को शिक्षकों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए योगदान और समर्पण को सम्मानित करते हुए मनाएं तो मुझे सबसे ज्यादा खुशी होगी। उसके बाद उनकी इसी इच्छा का सम्मान करते हुए 1962 से भारत में पांच सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
कौन थे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन:
डॉ. राधाकृष्णन का जन्म एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था।राधाकृष्णन अपने पिता की दूसरी संतान थे। उनके चार भाई और एक छोटी बहन थीं। छह बहन-भाइयों और माता-पिता को मिलाकर आठ सदस्यों के इस परिवार की आय बहुत कम थी।
राधाकृष्ण के पिता चाहते थे कि उनका बेटा मंदिर का पुजारी बने ,लेकिन डॉ कृष्णन ने अंग्रेजी सीखी और पढ़ाई पूरी कर शिक्षक बनें।
देश के उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन को बचपन में कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के ज्ञानी, एक महान शिक्षाविद, महान दार्शनिक, महान वक्ता होने के साथ ही हिन्दू विचारक भी थे। राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में बिताए थे जिस दौरान उन्होंने कभी भी शिक्षा के बदले में कोई मूल्य नहीं लिया।उनका मानना था शिक्षा का कोई मोल नहीं।